fbpx

स्वस्तिक हिन्दू धर्म का पवित्र, पूजनीय चिह्न और प्राचीन धर्म प्रतीक है। यह देवताओं की शक्ति और मनुष्य की मंगलमय कामनाओं का संयुक्त सामर्थ्य का प्रतीक है। पुरातन वैदिक सनातन संस्कृति का परम मंगलकारी प्रतीक चिह्न स्वस्तिक अपने आप में विलक्षण है। यह मांगलिक चिह्न अनादि काल से सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक को मंगल-प्रतीक माना जाता रहा है।
परिचय
विघ्नहर्ता गणेश की उपासना धन, वैभव और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ भी शुभ लाभ, स्वस्तिक तथा बहीखाते की पूजा की परम्परा है। इसे भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान प्राप्त है। इसीलिए जातक की कुण्डली बनाते समय या कोई मंगल व शुभ कार्य करते समय सर्वप्रथम स्वस्तिक को ही अंकित किया जाता है। भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही स्वस्तिक को शुभ मंगल का प्रतीक माना जाता है। जब कोई भी शुभ काम करते हैं तो सबसे पहले स्वस्तिक चिन्ह अंकित करते हैं और उसकी पूजा करते हैं। स्वस्तिक का शाब्दिक अर्थ होता है- “अच्छा या मंगल करने वाला।”
धार्मिक मान्यताएँ
हिन्दू धर्म ग्रन्थों के अनुसार किसी भी पूजन कार्य का शुभारंभ बिना स्वस्तिक के नहीं किया जा सकता। चूंकि शास्त्रों के अनुसार श्रीगणेश प्रथम पूजनीय हैं, अत: स्वस्तिक का पूजन करने का अर्थ यही है कि हम श्रीगणेश का पूजन कर उनसे विनती करते हैं कि हमारा पूजन कार्य सफल हो। स्वस्तिक बनाने से हमारे कार्य निर्विघ्न पूर्ण हो जाते हैं। किसी भी धार्मिक कार्यक्रम में या सामान्यत: किसी भी पूजा-अर्चना में हम दीवार, थाली या ज़मीन पर स्वस्तिक का निशान बनाकर स्वस्ति वाचन करते हैं। साथ ही स्वस्तिक धनात्मक ऊर्जा का भी प्रतीक है, इसे बनाने से हमारे आसपास से नकारात्मक ऊर्जा दूर हो जाती है।
स्वस्तिक का अर्थ
भारतीय संस्कृति में वैदिक काल से ही स्वस्तिक को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। यूँ तो बहुत से लोग इसे हिन्दू धर्म का एक प्रतीक चिह्न ही मानते हैं किन्तु वे लोग ये नहीं जानते कि इसके पीछे कितना गहरा अर्थ छिपा हुआ है। सामान्यतय: स्वस्तिक शब्द को “सु” एवं “अस्ति” का मिश्रण योग माना जाता है । यहाँ “सु” का अर्थ है- शुभ और “अस्ति” का- होना। संस्कृत व्याकरण अनुसार “सु” एवं “अस्ति” को जब संयुक्त किया जाता है तो जो नया शब्द बनता है- वो है “स्वस्ति” अर्थात “शुभ हो”, “कल्याण हो”। स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। ‘सु’ का अर्थ अच्छा, ‘अस’ का अर्थ सत्ता ‘या’ अस्तित्व और ‘क’ का अर्थ है कर्ता या करने वाला।
स्वस्तिक की आकृति
स्वस्तिक का आकृति हमारे ऋषि-मुनियों ने हज़ारों वर्ष पूर्व निर्मित की है। भारत में स्वस्तिक का रूपांकन छह रेखाओं के प्रयोग से होता है। स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं। रेखा खींचने का कार्य ऊपरी भुजा से प्रारम्भ करना चाहिए। इसमें दक्षिणवर्त्ती गति होती है।
मानक दर्शन अनुसार स्वस्तिक की यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है।
प्रथम स्वस्तिक, जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुड़ती (दक्षिणोन्मुख) हैं। इसे दक्षिणावर्त स्वस्तिक कहते हैं।
दूसरी आकृति में रेखाएँ पीछे की ओर संकेत करती हुई हमारे बायीं ओर (वामोन्मुख) मुडती हैं। इसे वामावर्त स्वस्तिक (उसके विपरीत) कहते हैं।
दोनों दिशाओं के संकेत स्वरूप दो प्रकार के स्वस्तिक स्त्री एवं पुरुष के प्रतीक के रूप में भी मान्य हैं । किन्तु जहाँ दाईं ओर मुडी भुजा वाला स्वस्तिक शुभ एवं सौभाग्यवर्द्धक हैं, वहीं उल्टा (वामावर्त) स्वस्तिक को अमांगलिक, हानिकारक माना गया है ।
स्वस्तिक चिन्ह में बिंदुओं का महत्व
स्वस्तिक की खड़ी रेखा सृष्टि के उत्पत्ति का प्रतिक है और आड़ी रेखा सृष्टि के विस्तार का प्रतिक है तथा स्वस्तिक का मध्य बिंदु विष्णु जी का नाभि कमल माना जाता है जहाँ से विश्व की उत्पत्ति हुई है. स्वस्तिक में प्रयोग होने वाले 4 बिन्दुओ को 4 दिशाओं का प्रतिक माना जाता है।।
कुछ विद्वान् इसे गणेश जी का प्रतिक मानकर प्रथम पूज्य मानते हैं. कुछ लोग इनकी 4 वर्णों की एकता का प्रतिक मानते है, कुछ इसे ब्रह्माण्ड का प्रतिक मानते है , कुछ इसे इश्वर का प्रतिक मानते है।।
स्वस्तिक का रंग व ऊर्जा
स्वस्तिक की आकृति सदैव कुमकुम (कुंकुम), सिन्दूर व अष्टगंध से ही अंकित करनी चाहिए। यदि आधुनिक दृ्ष्टिकोण से देखा जाए तो अब तो विज्ञान भी स्वस्तिक, इत्यादि माँगलिक चिह्नों की महता स्वीकार करने लगा है। आधुनिक विज्ञान ने वातावरण तथा किसी भी जीवित वस्तु,पदार्थ इत्यादि के ऊर्जा को मापने के लिए विभिन्न उपकरणों का आविष्कार किया है और इस ऊर्जा मापने की इकाई को नाम दिया है- बोविस।
इस यंत्र का आविष्कार जर्मनी और फ़्राँस ने किया है। मृत मानव शरीर का बोविस शून्य माना गया है और मानव में औसत ऊर्जा क्षेत्र 6,500 बोविस पाया गया है। वैज्ञानिक हार्टमेण्ट अनसर्ट ने आवेएंटिना नामक यन्त्र द्वारा ‘विधिवत पूर्ण लाल कुंकुम से अंकित स्वस्तिक की सकारात्मक ऊर्जा को 100000 बोविस यूनिट’ में नापा है। यदि इसे उल्टा बना दिया जाए तो यह प्रतिकूल ऊर्जा को इसी अनुपात में बढ़ाता है।
स्वस्तिक के ये उपाय करने से घर में सदैव बरकत व सकारात्मक ऊर्जा का होगा वास
स्वस्तिक अत्यंत प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति में मंगल-प्रतीक माना जाता रहा है। इसलिए किसी भी शुभ कार्य को करने से पहले स्वस्तिक चिह्न अंकित करके उसका पूजन किया जाता है। गणेश पुराण के अनुसार स्वस्तिक भगवान गणेश का स्वरूप है। इसमें सभी बाधा अौर अमंगल को दूर करने की शक्ति निहित है। स्वस्तिक को देवी लक्ष्मी अर्थात श्री का प्रतीक माना जाता है। ज्योतिष में स्वस्तिक के कुछ अलग प्रयोग बताए गए हैं। जिन्हें करने से घर में सदैव बरकत अौर सकारात्मक ऊर्जा का वास होगा।
1.घर के बाहर कुमकुम, सिंदूर या रंगोली से बना स्वस्तिक शुभ होता है। इससे घर में देवी-देवताअों का आगमन होता है।
2.सात गुरुवार तक उत्तर-पूर्वी कोने को गंगाजल से धोकर वहां पर हल्दी से स्वस्थिक बनाकर उसका पूजन करें। इसके बाद गुड़ का भोग लगाएं। इससे व्यापार में उन्नति होती है।
3.स्वस्तिक बनाकर उसके ऊपर जिस देवी-देवता की प्रतिमा रखी जाए वे शीघ्र प्रसन्न होते हैं। अपने इष्ट देव का पूजन करने वाले उस स्थान पर स्वस्तिक का चिन्ह अवश्य बनाएं।
4.पूजा स्थल पर स्वस्तिक बनाकर उसके ऊपर पंच धान्य या दीपक प्रज्वलित रखने से मनोकामनाएं पूर्ण होती है।
5.मंदिर में मनोकामना पूर्ति हेतु गोबर या कुमकुम से उल्टा स्वस्तिक बनाया जाता है। जब मनोकामना पूर्ण हो जाती है तो वहीं पर जाकर सीधा स्वस्तिक बनाया जाता है।
6.अनिद्रा अौर बुरे स्वप्नों से छुटकारा पाने के लिए सोने से पूर्व घर के मंदिर पर इंडैक्स फिंगर से स्वस्तिक बनाएं।
7.घर में गोबर से स्वस्तिक बनाएं। इसे घर में शांति, शुभता अौर समृद्धि आती है। इसके साथ ही पितरों की कृपा भी प्राप्त होती है।
8.देहलीज के दोनों अोर स्वस्तिक बनाकर उसका पूजन करें। स्वस्तिक के ऊपर चावल की एक ढेरी बनाएं। उसके बाद एक-एक सुपारी पर कलवा बांधकर उसको चावल की ढेरी के ऊपर रखें। इससे धन लाभ की प्राप्ति होगी।
9.उत्तर-पूर्व में उत्तर दिशा की दीवार पर हल्दी से स्वस्तिक बनाएं। ऐसा करने से घर में सदैव सुख-शांति का माहौल बना रहता है।
अब जरा स्वास्तिक का इतिहास भी खंगाल लेते हैं,…
उक्रेन में एक शहर है कीव,..  इस शहर की खुदाई में हाथीदांत पर नक्काशी किये हुए स्वास्तिक चिन्ह प्राप्त हुए हैं,। कार्बन डेटिंग से पता चला कि ये  15000 वर्ष पुराने हैं,. ..
दक्षिण पूर्वी यूरोप की प्राचीन सभ्यताओं में 8000-10000 वर्ष पुराने स्वस्तिक के चिन्ह प्राप्त हुए हैं। इंग्लैंड के एवं आयरलैंड के कई स्थानों पर प्राचीन गुफाओं में स्वास्तिक के चिन्ह मिले हैं। बुल्गारिया की देवेस्तेश्का गुफाओं (Devetashka Cave) में 6000 वर्ष पुराने स्वास्तिक के चिन्ह प्राप्त हुए,.
यूरोप में ईसा मसीह के जन्म से पहले और इसाई धर्म से भी पहले ग्रीक एवं रोमन” साम्राज्यों में स्वास्तिक एक प्रमुख चिन्ह था. जिसे कपड़ों से लेकर कीमती आभूषणों पर बनाया जाता था। जर्मनी में ईसा पूर्व 300-400 साल से एवं स्लोवाकिया और इटली मे इसवी पूर्व 700 वर्ष पहले के इट्रस्केन सभ्यता में स्वास्तिक के उपयोग के प्रमाण मिले है। यूरोप के प्राय सभी देशों की प्राचीन सभ्यताओं में स्वास्तिक के उपयोग के प्रमाण मिले हैं..
अमेरिका में यूरोप के लोगों के कदम पड़ने से पहले वहां बेहद विकसित माया सभ्यता के लोग निवास करते थे। पुरातात्विक प्रमाणों से ये बात मानी जाने लगी है कि माया सभ्यता के लोग हिन्दू रीति रिवाजों का पालन करते थे। अभी भी मेक्सिको के कबीलों में राम सितवा (Situa-Raimi) उत्सव दशहरा में मनाने की परंपरा है। उत्तरी अमेरिका के  कुना कबीले के लोगों के झंडे में  स्वास्तिक प्रतीक चिन्ह है,.
एशिया में स्वास्तिक के प्रयोग के सबसे प्राचीन प्रमाण सिन्धु घाटी की सभ्यता  (5000 वर्ष) से प्राप्त हुए हैं और स्वस्तिक का प्रयोग चीन ,जापान से लेकर पूरे दक्षिण एशिया में शुभ चिन्ह के रूप में होता हैं। आर्मेनिया एवं अन्य एशिया के देशों में प्राचीन स्वास्तिक के चिन्ह प्राप्त हुए हैं। ताजिकिस्तान का रास्ट्रीय चिन्ह स्वास्तिक है।
कांस्य युग के मिले अवशेषों में भी स्वास्तिक प्रतीक चिह्न का इस्तेमाल पाया गया है..
लेकिन 1930 तक इसकी लोकप्रियता में उस वक़्त एक ठहराव आ गया जब जर्मनी की सत्ता में नाज़ियों का उदय हुआ। इसके पीछे भी एक कहानी है. ….19वीं सदी में कुछ जर्मन विद्वान भारतीय साहित्य का अध्ययन कर रहे थे तो उन्होंने पाया कि जर्मन भाषा और संस्कृत में कई समानताएँ हैं। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीयों और जर्मन लोगों के पूर्वज एक ही रहे होंगे और उन्होंने “देवताओं जैसे वीर” आर्यन नस्ल की परिकल्पना की. इसे यहूदी विरोधी कुछ समूहों ने लपक लिया और स्वास्तिक का आर्यन प्रतीक के तौर पर चलन शुरू हो गया।
देखते ही देखते इसने नाज़ियों के लाल रंग वाले झंडे में जगह ले ली और 20वीं सदी के अंत तक इसे नफ़रत की नज़र से देखा जाने लगा। नाज़ियों द्वारा कराए गए यहूदियों के नरसंहार में बचे 93 साल के फ़्रेडी नॉलर कहते हैं, यहूदी लोगों के लिए स्वास्तिक भय और दमन का प्रतीक बन गया था। युद्ध ख़त्म होने के बाद जर्मनी में इस प्रतीक चिह्न पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और 2007 में जर्मनी ने यूरोप भर में इस पर प्रतिबंध लगवाने की नाकाम पहल की थी।
हिटलर की नाजी सेना में जो सबसे ज्यादा साहसी और क्रूर इंसान था, उसका नाम था,.. हेनरिच हेमलर। हिटलर के बाद नम्बर दो की पोजीशन पर था ये।इसने संस्कृत का बहुत अच्छा अध्ययन किया था और रोज हिन्दू ग्रंथों का पाठ करता था। गीता तो हमेशा अपने पास ही रखता था। इसी हेमलर की वजह से हिटलर भी हिन्दू संस्कृति की ओर झुका और उसने स्वास्तिक को अपने झंडे में शामिल कर लिया,…
 एक टेढ़ा स्वास्तिक और जब इतनी पवित्र चीज इतनी कल्याणकारी चीज अपनी थोड़ी सी भी दृष्टि,.. टेढ़ी कर ले तो अंजाम क्या होता है,. ये पूरी दुनिया देख चुकी है,..*