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महत्व और पूजन विधि

हिंदू धर्म में भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को राधाष्टमी के नाम से मनाया जाता है। इस दिन राधा जी का जन्म हुआ था। इसलिए यह दिन राधा के जन्मोत्सव के रुप में मनाया जाता है। व्रत के दिन राधा-कृ्ष्ण जी की विशेष पूजा की जाती है और राधा जी को पंचामृ्त से स्नान कराया जाता है। इस दिन पूजा करने और व्रत करने से मनुष्य को सभी पापों से मुक्ति मिलती है और वह इस लोक के साथ साथ परलोक में भी सुख भोगता है।

राधा जन्म की कथा

राधाजी का जन्म उत्तर प्रदेश के बरसाना नामक स्थान पर हुआ था. बरसाना स्थान मथुरा से 50 किलोमीटर दूर है और गोवर्धन से 21 किलोमीटर दूर स्थित है।बरसाना पर्वत के ढलान वाले हिस्से में बसा हुआ है। जिस पर्वत पर यह स्थित है उस पर्वत को ब्रह्मा पर्वत के नाम से जाना जाता है।

राधा जन्म के विषय में के पौराणिक कथा प्रसिद्ध है, कि एक बार राधा के पिता वृ्षभानु भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन एक सरोवर के निकट से गुजर रहे थें, कि उन्हें एक बालिका कमल के फूल पर तैरती हुई मिली, जिसे उन्होनें पुत्री के रुप में अपना लिया. कहा जाता है, कि राधा आयु में श्री कृ्ष्ण से ग्यारह माह बडी थी। वे बचपन से ही भगवान श्री कृ्ष्ण की अनन्य भक्त थी।

राधाष्टमी के दिन श्रद्धालु बरसाना की ऊँची पहाडी़ पर पर स्थित गहवर वन की परिक्रमा करते हैं।इस दिन रात-दिन बरसाना में बहुत रौनक रहती ह।विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। धार्मिक गीतों तथा कीर्तन के साथ उत्सव का आरम्भ होता है।

बरसाने के अलावा श्री राधा अष्टमी वृ्न्दावन में भी धूमधाम से मनाई जाती है।यहां राधा रानी के जन्म की खुशी में नृ्त्य और संगीत का आयोजन किया जाता है। इस दिन यह शहर एक दुल्हन सा सुंदर प्रतीत होता ह।श्री राधा अष्टमी के दिन बरसाने का राधा मंदिर फूलों से सजाया जाता है।राधा जी को लड्डूओं का भोग लगाया जाता है।छप्पन भोग बनाकर राधा जी को नैवेद्ध अर्पित किया जाता है। भोग लगाने के बाद यह प्रसाद मोर को खिला दिया जाता है।

राधा जन्म के विषय में के पौराणिक कथा प्रसिद्ध है, जो कि , राधा जी के जन्म से संबंधित है। राधाजी, वृषभानु गोप की पुत्री थी। राधाजी की माता का नाम कीर्ति था। पद्मपुराण में राधाजी को राजा वृषभानु की पुत्री बताया गया है। इस ग्रंथ के अनुसार जब राजा यज्ञ के लिए भूमि साफ कर रहे थे तब भूमि कन्या के रुप में इन्हें राधाजी मिली थी। राजा ने इस कन्या को अपनी पुत्री मानकर इसका लालन-पालन किया।

इसके साथ ही यह कथा भी मिलती है कि भगवान विष्णु ने कृष्ण अवतार में जन्म लेते समय अपने परिवार के अन्य सदस्यों से पृथ्वी पर अवतार लेने के लिए कहा था, तब विष्णु जी की पत्नी लक्ष्मी जी, राधा के रुप में पृथ्वी पर आई थी। ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार राधाजी, श्रीकृष्ण की सखी थी। लेकिन उनका विवाह रापाण या रायाण नाम के व्यक्ति के साथ सम्पन्न हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि राधाजी अपने जन्म के समय ही वयस्क हो गई थी। राधाजी को श्रीकृष्ण की प्रेमिका माना जाता है।

राधाष्टमी व्रत विधि

ममः राधासर्वेश शरणं मंत्र का यथासंभव जाप करें।

इस दिन सुबह उठकर स्नान आदि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें। व्रत का पालन शुद्ध मन से करें। पूजा आरम्भ करते हुए सबसे पहले राधाजी की मूर्ति को पंचामृत से स्नान कराएँ।स्नान कराने के बाद उनका श्रृंगार करें. शरीर को शुद्ध करके मण्डप के अंदर मण्डल बनाकर उसके मध्य में मिट्टी अथवा ताँबें का बर्तन रखकर उस पर दो वस्त्रों से ढकी हुई राधा जी की सोने या किसी अन्य धातु से बनी हुई सुंदर मूर्ति स्थापित करनी चाहिए। इसके पश्चात मध्यान्ह के समय श्रद्धा तथा भक्ति से राधाजी की आराधना करनी चाहिए. धूप-दीप आदि से आरती करनी चाहिए।अंत में भोग लगाना चाहिए.
जो व्यक्ति व्रत करने के इच्छुक हैं वह इस दिन व्रत भी रख सकते हैं. व्रत रखने के अगले दिन सुयोग्य स्त्रियों को भोजन कराना चाहिए। जिस मूर्ति की स्थापना की गई थी, उसे दान में दे देना चाहि।अंत में स्वयं भोजन ग्रहण करना चाहिए. जो व्यक्ति इस व्रत को विधिवत तरीके से करते हैं वह सभी पापों से मुक्ति पाते हैं।

कई ग्रंथों में राधाष्टमी के दिन राधा-कृष्ण की संयुक्त रुप से पूजा की बात कही गई है। इसके अनुसार सबसे पहले राधाजी को पंचामृत से स्नान कराना चाहिए और उनका विधिवत रुप से श्रृंगार करना चाहिए। इस दिन मंदिरों में 27 पेड़ों की पत्तियों और 27 ही कुंओं का जल इकठ्ठा करना चाहिए। सवा मन दूध, दही, शुद्ध घी तथा बूरा और औषधियों से मूल शांति करानी चाहिए। अंत में कई मन पंचामृत से वैदिक मम्त्रों के साथ “श्यामाश्याम” का अभिषेक किया जाता है।

राधाष्टमी के दिन श्री राधा कृपा कटाक्ष स्त्रोत्र का पाठ शुभदायक होता है।

श्री राधा कृपा कटाक्ष स्त्रोत्र

मुनीन्दवृन्दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणी, प्रसन्नवक्त्रपंकजे निकंजभूविलासिनी।
व्रजेन्दभानुनन्दिनी व्रजेन्द सूनुसंगते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१)

अशोकवृक्ष वल्लरी वितानमण्डपस्थिते, प्रवालज्वालपल्लव प्रभारूणाङि्घ् कोमले।
वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (२)

अनंगरंगमंगल प्रसंगभंगुरभ्रुवां, सुविभ्रम ससम्भ्रम दृगन्तबाणपातनैः।
निरन्तरं वशीकृत प्रतीतनन्दनन्दने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (३)

तड़ित्सुवणचम्पक प्रदीप्तगौरविगहे, मुखप्रभापरास्त-कोटिशारदेन्दुमण्ङले।
विचित्रचित्र-संचरच्चकोरशावलोचने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (४)

मदोन्मदातियौवने प्रमोद मानमणि्ते, प्रियानुरागरंजिते कलाविलासपणि्डते।
अनन्यधन्यकुंजराज कामकेलिकोविदे कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (५)

अशेषहावभाव धीरहीर हार भूषिते, प्रभूतशातकुम्भकुम्भ कुमि्भकुम्भसुस्तनी।
प्रशस्तमंदहास्यचूणपूणसौख्यसागरे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (६)

मृणालबालवल्लरी तरंगरंगदोलते, लतागलास्यलोलनील लोचनावलोकने।
ललल्लुलमि्लन्मनोज्ञ मुग्ध मोहनाश्रये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (७)

सुवर्ण्मालिकांचिते त्रिरेखकम्बुकण्ठगे, त्रिसुत्रमंगलीगुण त्रिरत्नदीप्तिदीधिअति।
सलोलनीलकुन्तले प्रसूनगुच्छगुम्फिते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (८)

नितम्बबिम्बलम्बमान पुष्पमेखलागुण, प्रशस्तरत्नकिंकणी कलापमध्यमंजुले।
करीन्द्रशुण्डदण्डिका वरोहसोभगोरुके, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (९)

अनेकमन्त्रनादमंजु नूपुरारवस्खलत्, समाजराजहंसवंश निक्वणातिग।
विलोलहेमवल्लरी विडमि्बचारूचं कमे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१०)

अनन्तकोटिविष्णुलोक नमपदमजाचिते, हिमादिजा पुलोमजा-विरंचिजावरप्रदे।
अपारसिदिवृदिदिग्ध -सत्पदांगुलीनखे, कदा करिष्यसीह मां कृपा -कटाक्ष भाजनम्॥ (११)

मखेश्वरी क्रियेश्वरी स्वधेश्वरी सुरेश्वरी, त्रिवेदभारतीयश्वरी प्रमाणशासनेश्वरी।
रमेश्वरी क्षमेश्वरी प्रमोदकाननेश्वरी, ब्रजेश्वरी ब्रजाधिपे श्रीराधिके नमोस्तुते॥ (१२)

इतीदमतभुतस्तवं निशम्य भानुननि्दनी, करोतु संततं जनं कृपाकटाक्ष भाजनम्।
भवेत्तादैव संचित-त्रिरूपकमनाशनं, लभेत्तादब्रजेन्द्रसूनु मण्डलप्रवेशनम्॥ (१३)